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तालाब की झुर्रियों वाली ज़मीन / कुमार कृष्ण
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दरख़्तों की
टहनियों पर ठहरी
गाँव की छाँव
हर रोज हो जाती सिफर
लापरवाह सूरज की पीठ पर।
सूरज के हाथ हैं
बैल की पीठ से भी ठण्डे
कटते हर रोज मेरी दहलीज पर।
बदलते प्रतिदिन चितकबरे मवेशी
मेरे गाँव का मौसम
एक चिड़िया दूसरी चिड़िया को भेजती
गुपचुप सन्देश
चहकता पंखों पर बन्दूक का आतंक
करते हैं परेशान
ग्राम-कन्याओं को
काँच की चूड़ियों के आवारा टुकड़े
देते उम्र को मीठी तसल्ली।
आकाश के खुले छाते पर
नहीं ठहरती
पसीने की नदी पर
काँपती धूप।
नहीं काँपता गाँव के पोखर में
नीला आकाश
मेरे पत्थर फेंकने से अब
काँपती है तो काँपती है
तालाब की झुर्रियों वाली ज़मीन
जिन्दा है जिस पर
बोझ ढोते खच्चरों के
घुँघुरुओं का संगीत।