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बब्बू भाई की चूड़ियाँ / कुमार कृष्ण

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बलरामपुर के वृक्षों को
पिघलते हुए देखना चाहते हो तो
जयपुर के त्रिपोलिया बाज़ार में आकर
सीधे सँकरी गली के अन्दर चले जाओ

सिगड़ी में आग लिये
गर्म सिल पर रोटी का तरह चूड़ियाँ बेलता
यहीं-कहीं मिलेगा बब्बू भाई।

बब्बू भाई कुछ नहीं कहेगा
काठ की हत्थी को लाख पर धीरे-धीरे धुमाते हुए
सामने पड़ी चूड़ियों की ओर इशारा करते हुए
सिल के गर्म रहने तक
लगातार चूड़ियाँ बेलता जाएगा।

पैंतालीस साल से बेल रहा है बब्बू भाई
गर्म लोहे पर चूड़ियाँ
शरीर में नमक की तरह जज़्ब हो गई है
बब्बू भाई की हथेलियों में आग
वैसे पाण्डव-परिवार से भी पुराना है
आग और लाख का रिश्ता।

आती-जाती औरतों को देखकर
कहता है बब्बू भाई-
चमक रही है सबकी बाँहों में
मेरी हथेलियों की आग
झूम रहा है उनकी बाँहों में
सिल और हत्थी का सपना
लटक रही है बाँहों में
बेटी की, पत्नी की नींद
उन्होंने पहन ली है
पूरे परिवार की भूख।

बहुत कम जानते हैं लोग
लाख है जिन्दा पेड़ का जमा हुआ दर्द
जितनी बार होता है गर्म
बब्बू भाई की सिल पर
उतनी ही बार
बदल लेता है अपना नाम
अनगिनत नामों से पहुँचा रहा घर-घर तक
बब्बू भाई लखेरा
बेरी की, कुसम्मी की, पलाश-बड़-पीपल की
रिसती हुई तकलीफ़।