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चिता की राख / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’

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बुझी हुई चिता
अवशेष राख
सफेद और कुछ भूरि सी
बिलकुल कोरी।
तन्हाइयों में
अंगड़ाई लेता हुआ
हवाओं के साथ
अपनी महबूबा के पास।
आशाओं का प्रतीक बनकर
निराकार
सम्वेदनशील रूप में
स्वच्छता दिखाता हुआ
पहुॅचते-पहुॅचते
रूक गया।
याद में
आहें भरकर
ऑसुओं के साथ
हिचकियों से टकराता हुआ
धूल में मिल गया।
मिलने की हसरत से
सफर करता रहा
बढ़ते रहा गिर-फिसलकर
वफा रह गयी सिमटकर।
फकत वक्त के गुलदस्ते
सहेजे हुए चलता रहा वेवाक।
रोमांस के आवेश में
उठकर संहला
फिर संहलकर
यूॅ गिरा
और गिरकर
ठेर हो गया
सदा के लिए।