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तृतीय उमंग / रसरंग / ग्वाल

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परकीया लक्षण (दोहा)

परकीयनु के हेतु जो, रूपासक्ति सुयेक।
यों ही प्रेम सौगुन कहौ, कामासक्त अनेक॥1॥
परपति में आसक्त जो, सो परकीया तीय।
द्वै बिधि सो ऊढ़ा प्रथम, द्वितीय अनूढ़ा गीय॥2॥

ऊढ़ा-अनूढ़ा लक्षण

ब्याही परपति सों रमै, सो ऊढ़ा बहु जक्त।
वह सु अनूढ़ा ब्याह बिन, जो पर पत्यासक्त॥3॥

ऊढ़ा यथा (कवित्त)

सासु ने पठाई लेन जामन जसोधा पास,
कारी रैनि बीजु दुति करि-करि ठत है।
मीत मिल्यो मग, अति अलग लिवाय गयो,
केलि की कला में अंक भरि-भरि उठत है।
‘ग्वाल’ कवि तरुन सरूप सम रति चिर,
ब्योग को न दुख, औ’ न डरि-डरि उठत है।
बरि-बरि उठत विरहागिन में बाल वह,
सीरी परि-परि फेरि जरि-जरि उठत है॥4॥

अनूढ़ा यथा

करौं का इलाज, लाज तेरे हाथ ब्रजराज,
आज सूधौ ब्याह सों बिचारी बात ताकी मैं।
जाउँ जब सासुर, उहाँई आइ जाउ जु पै,
तौ रहैं ये प्रान प्यारे तेरी छबि छाकी मैं।
‘ग्वाल’ कवि ताक दै तलास करि लीजो तहाँ,
कोऊ तों बनैगो ब्योंत ठौर जु मजाकी में।
आम के बगीचा में, कि गाँव के नगीचा कहूँ,
धाम के पिछार कै, कछार जमुना की में॥5॥

(दोहा)

त्रै-त्रै इनमें और हैं, सुखसाध्या दुखसाध्य।
कविकुल इनकों कहि कहैं, तीजी जो कि असाध्य॥6॥

सुखसाध्या लक्षण

बाहर निकसन हार, जो रक्षक करि जु विहीन।
परपति अनुरागिन भये, सुखसाध्या सुप्रबीन॥7॥

यथा (कवित्त)

गोधन के न्हान में, नहात मैं निहारी नारी,
वाहू ने निहार्यो मोहि भीर वा महान में।
फेर वह फेरी जाय पीपर की दैन लागी,
मैं हूँ लाग्यो दैन तब देखी मुसिकान में।
‘ग्वाल’ कवि सैन सों लिवाय गई सूने गेह,
पाइ गई मोकों निधि, करों का बखान मैं।
केलि की कलान में, निपुन बतरान में वो
ऐसी बनितान में न होगी परिमान में॥8॥

दुखसाध्या लक्षण (दोहा)

बहुत उपायन दुखन सों, प्रापत जो पर बाल।
दुखसाध्या सो परकिया, बरनत सुमति बिसाल॥9॥

यथा (कवित्त)

मेरी ओर बाकी छात ऊँची घर द्वैक बीच,
औचक नज़र जुरि गई येक रस है।
सैन सों बुलायो, गयो, जोगी बन पै न पाई,
खाखी बनि गयो, तऊ पायो न परस है।
‘ग्वाल’ कवि जानि रतिजगौ गोपी बनि गयो,
भयो मनभायो पायो दोउन हरस है।
ऐसे-ऐसे हाल तें मिली है एक बार प्यारे,
बार-बार वाको मेल सेल तें सरस है॥10॥

असाध्या लक्षण (दोहा)

कोटि जतन हू नहिँ मिलै, जदपि भयो मनमेल।
वहै असाध्या परकिया, ज्यों अकास की बेल॥11॥
है जु असाध्या तीन बिधि, बहुकुटुंबिता येक।
बहुरक्षिका बखानिये, अतिकांत्या सविवेक॥12॥
नामहिँ तें लक्षन सबै, ह्वै आवत परकास।
उदाहरन इनके कहूँ, जातें बढ़े हुलास॥13॥

बहुकुटुम्बिता यथा (कवित्त)

चारु चिकदार खिरकी में आय राजत है,
मैं हू जाय सौंही रहौं, दूर राहगीन तें।
मेरी ओर दृगन जुराय, मंद मुसिकाय,
आरसी कों देत चमकाय ततवीर तें।
‘ग्वाल’ कवि कहै पाँच-सातक जिठानी नंद,
सास तीन-चार सोऊ सरकैं न तीर तें।
सारी मति करत उपाय बहु भारी-भारी,
न्यारी ह्वै सकै न प्यारी गुरुजन भीर तें॥14॥

बहुरक्षिका यथा

छाती पै तें छिन में छबीली न छिनायो चित्त,
अति हितवारी सैन मारी मुसिकाय है।
जमुना नहाय न हरिमंदिर आय कभूँ,
जात में न जाय, पौरि पालौ न दिखाय है।
‘ग्वाल’ कहै द्वारपाल द्वार पासै रहैं ठाडे,
भीतर खवासैं क्योंहू दीखत न दाय है।
सुरँग लगाऊँ, कै जमाऊँ पंख उड़िबे कों,
कौन बिधि पाऊँ, हाय होत न उपाय है।

(सवैया)

जाऊँ तू ऊपर छत पै मैं, तौ बहू उत चाहै कि मैं उड़ि जाऊँ।
धाऊँ जितें तितैं हैं रखवार, चलै चित यों जु सुरंग लगाऊँ।
गाऊँ कहाँ कवि ‘ग्वाल’ कथा, यह दीखै न कोऊ उपाय अगाऊँ।
लाऊँ लुकंजन ढूँढ़ि कहूँ तौ, तबै यह प्रान पियारी कों पाऊँ॥16॥

(दोहा)

बहुकुटुंबिका ह्वै एकत, याके अंतरभाय।
रक्षन की करि एकता, भेद उभय दृढ़ भाय॥17॥

अतिकान्त्या यथा (कवित्त)

गोरे-गोरे अंग की उज्यारी सी पसारी रहै,
सेत जरतारी पै किनारी फैल फाबी सी।
रैन हू में दिन सो दिखात है, ददा की सों
हदमद दमकत बीज महराबी सी।
‘ग्वाल’ कवि ताकौ तुम, जाउ-जाउ कहौ लाल,
कैसे करि जाऊँ सुनो और है खराबी सी।
मेलि कै मयंक सों सिताबी में लिवाय आती,
ए पै न परैगी दाबी दिपै महताबी सी॥18॥

(दोहा)

ऊढा सुखसाध्या जु है, सो द्वै बिधि पहचान।
सभया एक बखानिये, अभया दूजी जान॥19॥
सभया पाँच प्रकार की, तिनके भाखत नाम।
गुप्ता कहि जु विदग्धिका, और लक्षिता बाम॥20॥
अनुसैना मुदिता बहुरि, इनकों करों बखान।
आगे अभया उभय बिधि, सुनिये सकल सुजान॥21॥
कहि इक पुरुषासक्त पुनि, दुअ बहु पुरुषासक्त।
याही सों कुलटा कहत, कविजन-गन विज्ञक्त॥22॥

ऊढ़ा सभया पंचधा: गुप्ता लक्षण

रति या रतिसंबंध कछु, गोपै किहु बिधि नारि।
सो गुप्ता त्रय कहि, भविस प्रतच्छ उचारि॥23॥

भूतगुप्ता यथा (कवित्त)

तुम कैसे आईं मैं तो दधि बेचि आवत ही,
नाहर निकसि आयो बन बजमारे तें।
वाने मैं न देखी, मैं अचक भजी चपकी सी,
धँसी मैं करीर की कुटी में डर मारे तें।
‘ग्वाल’ कवि बैंदी गई, छरा फँस्यो, आँगी चली,
छिदे ये कपोल देखो, अति उरझारे तें।
आस ही न जीवन की, राम ने बचाय राखी,
मरकै बचीहौं सास धरम तिहारे तें॥24॥
छिपि-छिपि ताको का, कदंबन की ओट ह्वैके,
हँसन बिलंबन की बड़ी ही निडरि हौं।
जानती न भेद यही औगुन तमाल दैया,
थाके तर आय (सब) सोच निरवारिहौं।
‘ग्वाल’ कवि दूर ही तें दीखें, पै न पास कोऊ,
जो पै ना विस्वास तो हमारो कह्यो करिहौ।
आओ तुम बार, हम आवें पैर पारैं तब,
तुमह हमेऊ कान्ह संग दीख परिहौ॥25॥

(सवैया)

दुख होय न गायें चलावति लात, हिली हक कान्ह पै कूकती हैं।
वह आय बिचारौ दुहै जब ही, तब ही ये चवाइन ढूकती हैं।
कवि ‘ग्वाल’ उरा बछरा के छुटै, पर्यो टॅटि छरा सु क्यों ऊकती हैं।
करौ नेकी किती पै न मानती नैक, बदी करिबे में न चूकती हैं॥26॥

भविष्यगुप्ता यथा (कवित्त)

राति है अँधेरी फेरी द्वारन किबार दैया,
हैं री बहुबैरी, वह राह अति बंकरी।
सास तू पठावै लेंन जामन, सितावै, अब-
जाये बनि आवै, पर काँपत है अंक री।
‘ग्वाल’ कवि गैयन की भीर माँहि जैबो-ऐबो,
दौरिकै उठैबो, पग लागत है कंकरी।
अँगिया मसकि जैहै, बिदुली खसकि जैहै,
तब तू दुखै है, दैहै नाहक कलंक री॥27॥

(सवैया)

नंदन तें तके धाम गये, बदनाम जु कोऊ करै तौ करौ री।
गोरस की चमची रहै आँगन, बैठत दाग परै तो परौ री।
गैया भजैं कवि ‘ग्वाल’ तहाँ, छरा टूटत सास लरै तौ लरौ री।
छाछहू छावत ओठ अली, फिरि जीभ जरै लजरै तो जरौ री॥28॥

वर्तमान गुप्ता यथा (कवित्त)

आउ-आउ बेगि तू परोसिन बचाउ मीहि,
आपना तिया तें कोऊ लिपटत जैसे है।
तैसैं यह कारो भय, कारो भयो बाबरो री,
छाँडत (ही) मोहि काटै दाँतन घनै से है।
‘ग्वाल’ कवि गहि लै री, गहि लै लपकि याहि
वाह भलो गह्यो तें भजाय दियो वैसे है।
हाय हाय दैया बाज आई यह गोकुल तें,
हा-हा कहूँ साँची इहाँ और तौ न ऐसे हैं॥29॥

(सवैया)

गोकुल की यह साँकरी गैल में जो रावरी रसरंग सों सींचैं।
लालें गुलालें सुधा लें इहाँ, मग लालें भये रँग कीचैं उलीचैं।
यों कवि ‘ग्वाल’ गुपाल छली, छबि छैल छक्यो पट छोरन खींचैं।
तेरी तो आली दूहू दपटे, सँग हौं भइ ऊपर ये भये नींचैं॥30॥

विदग्धा लक्षण (दोहा)

मिलन ठौर या समय को, जैसो जो संकेत।
सूचै अति चतुराइ सों, बाल बिदग्धा चेत॥31॥
सो सुधि धाइक वाक्य में, एक क्रिया में जान।
वाक्य विदग्धा दोय बिधि, सो अब करौं बखान॥32॥

वाग्विदग्धा लक्षण

कहै बचन किहुँ जुक्ति सों, काहू सों करि फेर।
मरमिहिँ इष्ट जतावई, वाग विदग्धा हेर॥33॥
दूती अलि कों, फेर तें, सूचै तिय निज इष्ट।
सो न मिलै किहुँ भेद में, वाक्य विदग्धा सिष्ट॥34॥
यातें लक्षन मैं कियो, नूतन बिधि कवि लोय।
स्वयंदूतिका इ पृथक, मरमी पद तें जोय॥35॥

यथा (कवित्त)

जाऊँगी नहान मैं दसासुमेध मथुरा कों,
दूसरे दिवस व्रत ग्यारस को धारौंगी।
राखियो खबर घर मेरे की परौसिन तू,
गुन या तिहारे को मैं (कभूँ) ना बिसारौंगी।
‘ग्वाल’ कवि सीरक ही सीरक सबेरे जैहौं,
फेर तौ चलैंगी लू, मैं कैसे कै सहारौंगी।
कदली के बाग में बिसाल एक बरबर
ताके तर दुपहर दरप निबारौंगी॥36॥

(सवैया)

कल पीहर जैबो जरूर हमें, पै करैं रबि की अति दागती हैं।
चलि भोर ही जाय टिकौंगी तहाँ, जहाँ छाँहैं तमाल की जागती हैं।
कवि ‘ग्वाल’ अबेरे चले तें अबै, सिथिलाई सरीर में पागती है।
इक जाम ही द्यौस चढ़े तें अली, अजबी-गजबी लुयें लागती हैं॥37॥

(कवित्त)

जानै नग भेदन कों, मुकता अभेद राखै,
चुनी है सुरुख येक बीच अनगन री।
हीरा की झलक, ताकी ललक लखै या तुही,
परम पिरोजन की पाँति पूरी पन री।
‘ग्वाल’ कवि भलका में नथ की बढ़ी है जेब
बैंदी में तिहारी होत, जगमग घन री।
जौहरि न प्यारी मन लाल माल करि दै री,
भाव करि लैहों तोहि दैहों घन धन री॥38॥

स्वयंदूतिका लक्षण (दोहा)

आप करै दूतत्व जो, स्वयंदूतिका जान।
सो जु द्विधा, संकेत इक, दुतिय सुरति पहचान॥39॥

संकेत स्वयंदूतिका लक्षण

आयो पुरुष पसंद सो, आप करै दूतत्व।
रचना कछु कहि बोधई, निज सँकेत को तत्व॥40॥

यथा (सवैया)

इकली मैं अभागिन हूँ घर में, न परोसिन हू अनुरागती हैं।
तुम्हें देखि बटोही दया उपजी, इह बेर दिगैं सब दागती हैं।
कवि ‘ग्वाल’ दुकोस लों पानी नहीं, अरु छाया न कैसी हू जागती हैं।
बिरमौ यह पौरि हमारी अजू, सु अगारी बड़ी लुएँ लागती हैं॥41॥

यह लात चलावनी हाय दैया, हर एक को नाँहि दुहावनी है।
सुनि तेरी तरीफ मिलावनी की, हित तेरे तो माल पुहावनी है।

कवि ‘ग्वाल’ चरायकै आवनी ह्याँ, फिर बाँधनी पौरि सुहावनी है।
मनभावनी दैहौं दुहावनी मैं, यह गाय तुही पै दुहावनी है॥42॥

सुरति स्वयंदूतिका लक्षण (दोहा)

पूर्व मीत रति करन में, जहाँ लगावै देर।
तहाँ तिया रति हित करै, दूत तु ब्यंग्य बखेर॥43॥

यथा (कवित्त)

सासु सतरात ह्वै है, ननद रिसात ह्वै है,
आई बड़ी घात सों, पै हियरा डरात है।
नाह को न नीको गात, जगत रही हों रात,
अंग अलसात प्यारे, जिय उमगात है।
‘ग्वाल’ कवि घन घहरात, लता लहरात,
पात-पात जुरे जात, पौन सरसात है।
भली तुम्हें ऐसे में सुहात बात, इतरात,
मैं तो घर जात, अब मेह आयो जात है॥44॥

क्रियाविदग्धा लक्षण (दोहा)

सौंही या किहुँ बीच दै, क्रिया सु करिकैं कोइ।
मीतै इष्ट सु बोधई, क्रियाविदग्धा सोइ॥45॥

यथा (कवित्त)

आज गोपसुत के विवाह माँहि गोपी गोप,
जुरे चाह भरे, भर घर औ’ गली गई।
गोख अपनी लै नंदलाल ने निरखि लीनी,
आलिन के सँग वृषभान की लली गई।
‘ग्वाल’ कवि न्यौतो लेत, ह्वाई जाय घेरी ताहि,
नागरी सों ह्वाई बनि, जुगती भली गई।
मीत कों दिखाय बंधुजीव फूल लैकैं येक,
वर के पतौआ तर धरकै चली गई॥46॥
कोऊ गोपसुत गयो बाग, छरी खेलिबे कों,
गोपिन को गहबर जूथ संग लीयो है।
तामें येक मंजुल मयंकमुखी मैनभाती,
मोहिनी सो जाको रूपरंग बिधि कीयो है।
‘ग्वाल’ कवि ताही समै, ताको मीत आयो तहाँ,
ताकत ही ताकों री उमंग आयो हीयो है।
प्यारे को तकाय चाँदनी को फल तोरि तानै,
आधे पर अंजन लगाय फेंक दीयो है॥47॥

(सवैया)

बर बासर पाय नहान गई, अबला कमला-सी सुभायन में।
भरे लोचन लोच सँकोचन तें, परबीन बड़ी छवि छायन में।
कवि ‘ग्वाल’ मिले नँदलाल जहाँ, भये दोऊ निहाल दिखावन में।
लिखि सेंदुर तें इकसा अरविंद, पै डार्यो गुबिंद के पायन में॥48॥

लक्षिता लक्षण (दोहा)

किहुँ तिय की, किहुँ पुरुष सों, रति, रतिचिन्ह सुजोय।
जानी जनवै जाहि सो, बाल लक्षिता होय॥49॥

प्रीतिलक्षिता यथा (कवित्त)

भूलि-भूलि जात है, सिँगारत सिँगारन कों,
झूलि-झूलि जात झकै झझरी झुमैया सों।
आलिन सों बतरात, जात रहि-रहि जात,
फेर बतरात कछू औरै चपलैया सों।
‘ग्वाल’ कवि चकित-सी, चौंकत-सी, चकई-सी,
चाहत-सी चितवै चहूँधा चतुरैया सों।
जानी जात जाहर जुर्यो है जिय तेरो जान
जालिम जबर जादूगीर जदुरैया सों॥50॥

सुरति लक्षिता यथा

यह जिन जानै कोऊ, लखि नहिँ जानै मोहि,
कौन नहिँ जानै अरी, दृग उरझारे कों।
करि चतुराई पीक पलकन पौंछि डारी
तऊ लीक रही है, बुझावन इसारे कों।
‘ग्वाल’ कवि बिंदुली सरकि रही भौंहन पै,
चुरियाँ करकि आईं कर के किनारे कों।
केलि-सर-सीकर दिखाये सीत-सीकर ये,
आई तें खुसीकर बसीकर पियारे कों॥51॥

(सवैया)

कबहुँ नहिँ कान सुने हमने, यह कौतुक-मंत्र बिचार के हैं।
कहि कैसे भये, करि कौने दये, सिखये कोऊ साधु अपार के हैं।
कवि ‘ग्वाल’ कपोल तिहारे अली, दुहूँ ओर में बाग बहार के हैं।
चमकें ये चुनी-सी चुनी इत में, उतमें पके दाने अनार के हैं॥52॥

अनुशयना प्रथम लक्षण (दोहा)

थल सँकेत को हेतु किहुँ, तियै अलभता होय।
ता तकि दुखै विलब्ध थल, संकेता है सोय॥53॥

यथा (कवित्त)

गोरी गजचाल की, सु ताल की तरफ चली,
बगिया रसाल की ह्वाँ, छोरन के ख्याल की।
पंचलरी लाल की औ’ मुकता के माल की,
सुहालनि उताल की, कहौं का छबि जाल की।
‘ग्वाल’ कवि बरखा अकाल की, कराल की तें,
मढ़ी ग्राम पालकी गिरी निरखि हाल की।
बेदन दुसाल की सी, मानो उसी माल की सी,
जारों हौं बिसाल की सी, देखी दसा बाल की॥54॥
नागरी लै गागरी नहान गई जमुना पै,
प्रेम-गुन-आगरी सुधाई मनो छीर की।
झनकत जात नये नूपुर नकासीदार,
सनकत जात मोसों मोही जदुबीर की।
‘गवाल’ कवि तहाँ पुर उजरि बस्यौ सो तकि,
तरुनी के तन-तन भीर भई पीर की।
मारी पंचतीर की, रही न सुधि धीर की,
जु तीर की न, नीर की न, चीर की, सरीर की॥55॥

द्वितीय अनुशयना लक्षण (दोहा)

मित्र मिलन संकेतथल, अब मिलिहै, कि मिलै न।
यों तिय सोचि जु समुझि सखि, देय दिलासा ऐन॥56॥
यों सँकेतथलसंसया, क्यों सोचति है नारि।
घने सघन बन-बाग हैं, जहँ तेरी ससुरारि॥57॥

यथा (कवित्त)

येक मन येक प्रान तेरे अरु मेरे प्यारी,
तौहू निज मरम दुरायो मोसों तूनै री।
दासी हौं तिहारी मैं खवासी ह्वै चलौंगी संग,
तजि दै उदासी बोलि, मानि मत ऊनै री।
‘ग्वाल’ कवि गई मैं सलूने पै सो देखिे आई,
इहाँ तें उहाँ है मेल-सुख सब दूने री।
पीहर तिहारे के पिछारे के परौसी पंच,
पावक सो पजरे परै है घर सूने री॥58॥

तृतीय अनुशयना लक्षण (दोहा)

किहुँ कारन तिय बूझही, प्रिय सँकेतथल जान।
रुकी हेतु किहुँ जो दुखै, अवरोधिता सु मान॥59॥

यथा (कवित्त)

जायबे कों मीत पै तयार ही तरुनि तौ लों,
आय गयो भैया, तासों बेग ही कियो मिलान।
पूछत ही पीहर की कुसल चपल भई,
पल-पल भारी भयो चित्त के चलायमान।
‘ग्वाल’ कवि मदनगोपाल लै मदन-बान,
दूर सों दिखायो ताहि, सो लग्यो मदन-कान।
भूलि गई बतरान, खानपान पानखान,
खान लग्यो पानदान, चौघड़ा अतरदान॥60॥
बाँसुरी सुनत बोली, आज मैं गई न उहाँ,
प्रीतम पहुँचि गयो, बीच फुलबारी में।
रुकि रही काज में समाज में लुगाइन के,
आज मैं गई री चूक गावनि में गारी के।
‘ग्वाल’ कवि कहै मो अभागिनि कों मंदमति,
खोयो री अनंद याने दिवस दिवारी के।
जिय में यही है, तजि सरबस, जाऊँ आली,
बरबस बास ही में बसोंगी बिहारी के॥61॥

मुदिता लक्षण (दोहा)

मीत वस्तु औचक मिलन, या लहि कारन मेल।
तिया बूझि जो हरषई, सो मुदिता रस बेल॥62॥

यथा (सवैया)

अब पीहर कों दिवरानी चली, रही सासुल सो अँधियानी फिरै।
पति हू सिवरानी की जात चल्यो, दिन द्वैक तें दासी रुसानी फिरै।
कवि ‘ग्वाल’ यों जानी तिया जब तें, तब तें छतिया सियरानी फिरै।
तन की तन फूल समानी फिरै, मन की मन में मुसिकानी फिरै॥63॥

ऊढ़ा अभया द्विधा यथा (कवित्त)

कारो-कारो जाकों री पुकारो जग मोकों कहा,
मोहि तो लगत वही रूप उजियारी री।
सीस धरौ आरौ, चीर डारौ क्यों न बीच में तें,
मैं तो उर धारौ वाके प्रेम को पसारी री।
‘ग्वाल’ कवि चारों ओर भये ते चबाउ भारो,
न्यारो भयो जात कहा, मोरपंख वारो री।
चाहै पति मारौ, चाहै सासु दै निकारो, अब-
मैं तो करि चुकी प्यारो नंद को दुलारो री॥64॥

ऊढ़ा अभया बहुपुरुषाक्ता (कुलटा) लक्षण (दोहा)

करै बहुत से मीत जो, काहू न धन कछु लेइ।
ताकों कुलटा कहत हैं, बुधजन जानत भेइ॥65॥

यथा (कवित्त)

कैसें वे जीयत नारी येक ही पुरुष पागी,
कैसें हिय-कमल सदाँई खिलिबो करै।
एक (ही) सवाद तें भरत मन कैसे दैया,
रसना तो खटरस ही कों पिलिबो करै।
‘ग्वाल’ कवि भौंरनी पियत रस फूल-फूल,
बीजुरी हू घन-घन मिल हियबो करै।
बेलि कों बिलोकि येक तरु सों प्रथम लगि,
पुनि पास-पास के तरुन मिलिबो करै॥66॥

(दोहा)

परकीया को दुतिय जो, भेद अनूढ़ा होय।
सो सभ्या ही होत है, जानै सब कवि लोय॥67॥

परकीया भेद: स्थूल गणना

परकीया के भेद गन, ऊढ़ अनूढ़ा दोय।
सुखसाध्यादिक तिहुँन में, तिगुने करि षट होय॥68॥
सभया पाँचन में मिलै, अभया द्वै बिन भूल।
सात जु ये षट् प्रथम के, त्रोदस विधि ये थूल॥69॥

गणिका लक्षण

दै-दै संपत्ति जा तियहिँ, करिये केलि-कलान।
सो गनिका है नायका, बुधजन करी बखान॥70॥

यथा (कवित्त)

अंबर-अतर तर-बतर दिवालें करि,
ढारत गुलाब जल हेमन के हौज पै।
राजै परजंक पै मयंकमुखी लोंने लंक,
अंक भरिबे की चढ़ी चाह रूप फौज पै।
‘ग्वाल’ कवि जासों कोई पान दै मिलान चाहै,
ताकत तनक जो बदामन की लौज पै।
द्वारै जार-जार रंक जारन बजारन में,
स्वावै जरदारन हजारन की मौज लै॥71॥
बैन कहै काहू सों, अचैन करै काहू सों,
औ’ चैन करै काहू कों, जतावै सैन सेज तें।
काहू सों इजार-अँगियान के इसारे करै,
काहू सों कहत लाउ छला वे कहे जेेतें।
‘ग्वाल’ कवि प्यारन सों खेल-खेल स्यार पाँसे,
फाँसे लेत मन-धन, हाँसे के मजेजे तें।
प्रेम में परे जे, कतरे जे काम-काती कर,
छिदिगे करेजे हैं, खरे जे नैन-नेजे तें॥72॥
माँगै हेमहार वह हिय की हरनहार
हार-सी जताय लगि जाय परजंक सों।
मसक बिना ही उठै, ससकि-ससकि प्यारी,
खसक-खसक उरै लिपटत अंक सों।
‘ग्वाल’ कवि रति की तरह जुग जंघै जोरि,
उलटि पर्यो मैं तरै वा मुख-मयंक सों।
जैसे चेंप लगी के लगाये, लगी आवै चिरी,
तैसे लगी आवै वह लौंनी लंक, लंक सों॥73॥
लाल-लाल पाँइन में कौसें जरकसी लसी,
हौंसें माल लैबे की बहार जाके जी पै है।
घेरदार पाइचे इजार कीमखापी तापै,
पैन्हि पीत कुरती रती को रूप लीपै है।
‘ग्वाल’ कवि उरज उतंगन में आँगी तंग,
ओढ़नी सुरंग झुकि आँख सरसी पै है।
सोने की सिरी सी, बिजरी सी, निसरी सी वह,
चंद तें चिरी सी दीसी, बैठी कुरसी पै है॥74॥

॥इति श्रीरसरंगे ग्वालकवि विरचिते परकीयाभेदगणिकावर्णनं नाम तृतीयो उमंग॥