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घर पछुअरबा लओंग केरा हे गछिया / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पति की बातों से रूठकर पत्नी अपने मायके चल देती है। रास्ते में नदी पार कर देने के लिए वह केवट से प्रार्थना करती है। केवट उससे रात-भर ठहर जाने को कहता है, जिसे सुनकर वह केवट से कहती है- ‘ऐसी गंदी बातेॅ मुझे अच्छी नहीं लगती। खबरदार, जो फिर ऐसी बातेॅ कीं।’ उसका यह उत्तर उसके गौरव को बढ़ा देता है-चॉन सुरुज सन आपन परभु तेजल, तोहर कवन मोल हे। लेकिन, इस घटना से उसकी आँखें भी खुल जाती हैं। इसी बीच उसका पति विभिन्न सामग्री के साथ उसे मनाने आ जाता है।

घर पछुअरबा लओंग केरा हे गछिया, लओंग चुर्य आधी रात हे।
लओंगा में चुनि चुनि सेजिया लगाओल, गमकि रहै आधी रात हे॥1॥
ताहि कोहबर सूते गेल दुलहा कवन दुलहा, जौरे<ref>साथ में</ref> पंडित केरा धिया हे।
घुरि<ref>घूमकर</ref> सूतू फिरि सूतू राजाजी के बेटिया, गरमी अधिक जनु होय हे॥2॥
एतना बचन जबे सुनलन कवन सुहबे, रुसलि नैहर<ref>नैहर; मायका</ref> कैने<ref>की ओर</ref> जाय हे।
घर पछुअरबा में बसै केबट भैया, मोहिं के पार उतारऽ हे॥3॥
एक त छिक तोहें राजाजी के बेटी, दोसरे लागबऽ बहीन हे।
आजु रतिया सुहबे एतहिं गमाबऽ पराते उतारब पार हे॥4॥
भलो नहिं बोलल केबटा भैया हितबा, ई बोली मोहिं न सोहाय हे।
चान सुरुज सन आपन परभु तेजलाँ, तोहर कवन मोल हे॥5॥
एक नैया आबै लओंगे इलचिया, दोसर नैया पाकली पान हे।
तेसर नैया आबै ओहो दँतरँगबा<ref>‘दँतरँगबा’ से अभिप्राय उसके पति से है, जो अधिक पान खाता है</ref> आजु मनायन होय हे॥6॥

शब्दार्थ
<references/>