भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहाँ से हो एैले रतनारे सुगना / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:33, 28 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKLokRachna |रचनाकार=अज्ञात }} {{KKCatAngikaRachna}} <poem> प्रस्तुत गी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रस्तुत गीत में दुलहे को सुग्गे के रूप में चित्रित किया गया है। सुग्गा दूसरे गाँव में जाकर स्नेह जोड़ रहा है। लड़की उसका स्वागत करती है, लेकिन उसका भाई उसे मारने के लिए तैयार हो जाता है। बहन भाई से उस सुग्गे को नहीं मारने का अनुरोध करती है; क्योंकि उसका उसी के साथ निर्वाह संभव है। सुग्गा भी अपनी होने वाली दुलहन का रुख देखकर चुनौती देता है कि मैं धूमधाम के साथ इससे विवाह कर इसे अपने घर ले जाऊँगा।

कहाँ सेॅ हो एैले रतनारे सुगना, कहाँमाहिं जोरल दोकान हे।
कवन गाँम संे एैले रतनारे सुगना, कवन गाँम माँहिं जोरल दोकान हे॥1॥
केकर छपरि<ref>छप्पर</ref> चढ़ि बैठले रे सुगना, दोनों हाथे मिनती हमार हे।
घोरिया<ref>घोड़ी</ref> चढ़ल आबै कवन हो भैया, दोनों हाथे खरग हो झमकाय<ref>चमकाते हुए; झमकाते हुए</ref> हे॥2॥
मचिया बैठल तोहें कवन गे बहिनी, दोनों हाथे मिनती हमार हे।
जनु काटु जनु मारु रतनारे सुगना, सुग्गा हाथे बसेरा हमार हे॥3॥
बाहर नगरी हम्में नचना नचैबै, तैयो<ref>तो भी</ref> लै जैबै गौरी बिहाय<ref>विवाह करके</ref> हे।
बाहर नगरी हम्में रसोइया सिझैबै, तैयो लै जैबे गौरी बिहाय हे।
बाहर नगरी हम्में डमरू बजैबै, तैयो लै जैबै गौरी बिहाय हे॥4॥

शब्दार्थ
<references/>