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सावन भादव केरा उमरल नदिया / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रस्तुत गीत में सावन-भादों की उमड़ी नदी की तरह जीवन को पार करने के लिए बेड़ा बनाने तथा उस बेड़े के टूटने पर धारा में अपने को अर्पित करने का उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त, जहाँ वह विदाई के समय बाबा के द्वारा डोली, अम्माँ के द्वारा धेनु गाय और भाई के द्वारा तुरत ब्याई हुई भैंस दहेज में देने का उल्लेख करती है, वहाँ भाभी के कठोर हृदय के विषय में भी वह कहने को नहीं चूकती। भाभी और ननद का आपसी मनमुटाव सर्वविदित है। भाभी पति-गृह आने पर देखती है कि उसकी ननद उसके ससुर, सास, पति आदि की प्यारी है और ननद को अनुभव होता है कि उसकी भाभी माँ, पिता और भाई आदि की प्यारी बन रही है। इस कारण दोनों में आपसी वैमनस्य आरंभ होता है।

सावन भादव केरा उमरल<ref>उमड़ी हुई</ref> नदिया, कौने बिधि उतरब पार।
काटबै में सामर<ref>थूहर या सेॅहुड़ का वृक्ष</ref> सिकिया बेढ़बा<ref>बेड़ा</ref> बनैबै, ओहि चढ़ि उतरब पार॥1॥
टूटी जैतै बन्हना<ref>बंधन</ref> छिलकी<ref>छिटक जाना</ref> जैतै सिकिया, भँसिआय<ref>बहकर; डूबकर</ref> मरब बीचे धार।
चलु चलु सखिया दिवस भेल रतिया, आब<ref>अब</ref> चित भेलै बहार॥2॥
केओ<ref>कोई</ref> मोरा देलकै चढ़ने के दोलिया<ref>डोली; पालकी</ref>, केओ मोरा देलकै धेनु गाय।
केओ मोरा देलकै कारी धेनु<ref>तुरत की ब्याई भैंस</ref> भैंसिया, किनकर छतिया कठोर॥3॥
बाबा मोरा देलकै चढ़ने के दोलिया, अम्माँ मोरा देलकै धेनु गाय।
भैया मोरा देलकै कारी धेनु भैंसिया, भौजो के छतिया कठोर॥4॥
मिलि लेहो जुलि लेहो सखी हे सहोदरा, दोलिया में परैछै<ref>पड़ रहा है</ref> ओहार।
मिलते जुलैते पहर दिल बीतलै, जुड़बा बान्हैते भै गेल<ref>हो गया</ref> भोर॥5॥
हमरो से छोट छलै छोट मोर भैया, तेकरो सेॅ मिलियो नै<ref>नहीं</ref> भेल।
मिलि लेहो जुलि लेहो सखी हे सहेलिनी, हमहुँ जायछी लबी<ref>नई</ref> ससुरारि॥6॥

शब्दार्थ
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