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बर्फ से ठण्डे दिल / महेश सन्तोषी

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कल शायद बर्फ ही नहीं बचे, हमारे आसपास गलने के लिए
कल शायद पिघलना ही बन्द कर दें
लोगों के बर्फ से ठण्डे दिल,

पहले तो पसीजते भी थे दिल
दिल, मोमबत्तियों-से जलते भी थे।
अपने लिए ही आँखें नहीं होती थीं गीली
आँसू दूसरों के लिय भी ढलते थे।
बाजार से नहीं खरीदते थे मोम
थोड़ा सा दिलों में भी रखते थे लोग।
घर-घर सबेरा बांटने को,
उम्र भर लोग अंधेरों से गुजरते थे।
अब तो घरों के आगे नहीं जातीं आत्मा की सरहदें
सम्वेदनाएँ तक हो गयी हैं, कितनी सतही, संगदिल?
बर्फ से ठण्डे दिल...

अब जगह-जगह बाजार में बिकेंगे दिल
दिल बदले भी जाएँगे
बाजार से हम खरीद तो लाएँगे दिल,
पर जमीर कहाँ से लाएँगे?
कहाँ से लाएँगे हम, मां बाप से मिली धड़कनें?
जो पीढ़ियों को जोड़ती थी
वह गर्मी खून में कहाँ से लाएँगे?
आपस में इतने हिल-मिल गये हैं,
अन्दर और बाहर के जहर
कौन सा अपना है, कौन सा पराया?
पहचानना तक हो गया, मुश्किल!
बर्फ से ठण्डे दिल...