भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहले बलात्कार फिर हत्या / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:24, 2 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=हि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहले बलात्कार, फिर हत्या, औरत पर ये दोहरे जुल्म
जगह-जगह एक जैसे, पर, हर बार एक से, बार-बार कैसे दुहराता है आदमी?
उसे पूरा मारने तक या उसके पूरा मरने तक,
एक बार और, एक बार और, और भोगना चाहता है आदमी!
औरत होने के जुर्म की सजा उसे देना चाहता है,
जीते जी, उसका जिस्म नोंचकर चबाना चाहता है आदमी

सभ्यताओं, मूल्यों, मर्यादाओं की बीसियों सदियाँ एकसाथ ढह जाती हैं,
जब कोई कहीं भी ऐसा जुल्म ढाता है, हर सभ्यता का सर शर्म से झुक जाता है
आए दिन औरतों पर ये दैहिक अपराध, उनकी निर्मम हत्या,
एक बार फिर इतिहास ने झुठलाया, इतिहास फिर दुहराया जाता है!

ये इंसान है या हैवान या शैतान, कौन है यह?
जो बर्बरता की सभी सरहदें पार कर जाता है,
कहते हैं बलात्कार का शिकार खुद ही होता है उसका असली साक्षी,
उससे बढ़कर कोई साक्ष्य नहीं होता, उसकी मौत के साथ ही मर जाता है,
हर पीड़िता का साक्ष्य और सार्थकता!

फिर भी हमारी अदालतें कभी कुछ नहीं सीखतीं,
न चीखता हमारा समाज, न सिहरता, न मशालें हाथों में संभालता!!