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बड़ी हसीन थी यह दुनिया / महेश सन्तोषी

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बड़ी हसीन थी ये दुनिया, उससे भी ज्यादा हसीन थी ज़िन्दगी,
बता तो दे कैसे-कैसे जिये अपने हिस्से के समय के लम्हे?
कहीं पहाड़ों से बातें कीं, कहीं नदियों से, जंगलों से बोल लिए,
फूलों की रुपहली बस्तियों में हमने प्यार के घर बसा लिए;
बहारे आई-गयीं, दो-एक ठहर भी गयीं,
फूलों की मानसिकता ले उम्र के मौसमों के लिए!

नीचे से आसमान को छूता सागर, क्षितिजों पर अनदिखे धुँए,
अनछुए धूप के दिये चिलके, छिटके, लहरों पर रह-रहकर;
कोई तो लिखे, कोई तो लिखे एक प्यारी सी ग़ज़ल
जल की इन अथाह गहराइयों पर;
हमने देखे हवाओं के रचे बहते छन्द,
लहरों पर अनुभूतियों की ऊँचाइयों के!

समय के सफों पर कुछ ऐसे ही खुलते रहे कुदरत के अजूबे
करिश्मों के सफों पर, एक-एक कर;
आँखों में बिंधे रहे, यादों में जीवित रहे,
बर्फ की चादरों पर सुबह की धूप के अक्षर;
सूरज के बेटे थे, धूप ने पाले-पोसे थे,
हमने तो सारे सुख पा लिये खुद को खोकर, खुदाई खोकर!