पहली और आखिरी औरत / महेश सन्तोषी
तुम मेरी ज़िन्दगी में पहली औरत नहीं थीं
पर, ऐसी पहली औरत थीं, जो मेरी ज़िन्दगी बनकर रह गयी।
जबसे प्यार देहों का संगम बनकर रह गया
प्यार का रंग-रूप सारा आकार बदल गया।
कुछ मर्यादाएँ थीं मन की, बदन की, उन्मुक्ताओं पर
वो कोई और वक्त था, जैसे आया, वैसा गया!
ज़िन्दगी में पुरानी देहें पीछे छूटती रहीं
नयी देहों का सिलसिला चलता रहा नया-नया,
जब समय ने, समाज ने हमारी संस्कृति छीन ली,
कहाँ से छूते प्यार की ऊँचाइयाँ?
हमने मन की खाइयाँ भरने, तन के सहारे लिये
मैं चाहता तो तुम्हें भी भूल सकता था, एक और भोगी हुई औरत की तरह,
ज़िन्दगी का सफ़र आगे भी चल सकता था, रोज के देहों के उत्सवों की तरह;
पर, मुझे तुम्हारे संग कुछ ऐसा लगा जैसे शरीर के आगे भी सरहदें हैं प्यार की
दो सह-अस्तित्वों के विलय की तरह!