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ज़िन्दगी तुम्हारे साथ नहीं बीती / महेश सन्तोषी

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ज़िन्दगी तुम्हारे साथ नहीं बीती, पर,
कविताओं में तुम्हें जीते-जीते अब तो सारी उम्र बीत गयी,
बीत गये हिस्से के बसन्त, पतझर, रीत गयी बूँद-बूँद रिसती पावस
मन के मौसमों के रंग मर गये, उमंग मर गयी!

हमने तुम्हें खोया, प्यार तो नहीं कह सके,
पर, हम सिकी दूसरे को प्यार कर भी कहाँ सके?
एक बयार थी बहारों से भरी, तुम्हारे साथ बही, फिर रह गयी अनबही,
हम कुँवारे थे, कुँवारे प्यार के दिन थे,
हम दोनों कम-ज्यादा, उन्नीस-बीस के थे,
भरी उम्र थी, चाँदनी पलकों में थमी रही!

पर, फिर तुम्हारे बिना रीते रहे, बिना बूँद के सावन
एक स्थायी नमी आँखों में भी रही, प्राणों में भी रही।
अगर तुम फिर गुजरते हमारी उम्र के रास्ते से
तुम्हें दिखाते अन्दर, दिल में कितनी कमी रही?
कितनी बर्फ जमी रही!