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फूल की चोरी / महेश सन्तोषी

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कल जिस सड़क पर तुम मुझे मिले
उसके ऐसे मोड़ पर ले गये जो सेमल के सहस्रों वृक्षों से भरा था,
हर वृक्ष लाल फूलों से सर तक ढंका था, लदा था।

ऐसा लगता था जैसे कोई छोटा-सा फूलों का आकाश हो,
और कोई छोटी-सी हो फूलों की वसुन्धरा,
‘इनमें एक फूल मेरा है’, तुमने कहा था; मेरा उत्तर था, ‘मुझे यह पता है।’
तुमसे यह संवाद सपने में हुआ था।
पर, सुबह इसका एक-एक शब्द मेरी साँसों में बिंधा था।
पर, मैंने तुम्हारा वह फूल चुराया नहीं था,
वह खुद ही मेरी गोद में आ गया था, गिरा नहीं था,

कुछ वर्षों वह मेरे जीवन की सुगन्ध भी था, सौरभ भी था।
एक ऐसा अनुराग था, जो पूरा पराग से भरा था,
बदन से गुँथा एक वसन्त था वह, मन पर, जीवित वसन्त-सा आच्छादित था।
तुम्हारी तरह, अब तुम्हारे उस फूल की भी मृत्यु हो चुकी है,
दो ज़िन्दगियों में बँटी, बस उसकी एक कहानी ही बाकी बची है।
पर, मैं तुम्हारे आगे अपराधी नहीं हूँ,
तुम्हारे प्रति किसी पाप का भागी नहीं हूँ।
जब तक तुम जीवित थे, वह फूल तुम्हारा था, तुम्हारे लिये जिया था,
पर, वह तुम्हारे अवशेषों के साथ जिये, यह कतई जरूरी नहीं था।
कहीं तुम्हारी वसीयत में भी नहीं लिखा था।
सच, मैंने तुम्हारा फूल चुराया नहीं था,
वह खुद ही मेरी गोद में आ गया था, गिरा नहीं था!