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एक सत्य शब्द / महेश सन्तोषी

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मैं अपने हिस्से के समाज, अपने हिस्से के समय को जी भी रहा हूँ
और दोनों को
एक आइना दिखाता हुआ खुद भी दूसरे के आइने के सामने खड़ा हूँ।
बहुत आसान है औरों का क़द नापना,
उन्हें नीचे उतारना या उन्हें ऊपर चढ़ाना,
इसलिए स्वयं भी प्रश्न-चिन्हों से घिरा, एक कटघरे में खड़ा हूँ
क्या मैं समाजशास्त्री हूँ? एक पथखोजी यात्री हूँ,
क्या हूँ? क्या नहीं हूँ? आज सुबह से यह सवाल मेरे मन में पड़ा है।

किसने दिया? मुझे क्यों दिया समीक्षक होने का हक़,
क्या पेशे ने दिया? ज़मीर ने तो नहीं दिया?
उम्र भर औरों के लिए कसौटियाँ बनाता रहा,
कभी स्वयं को भी किसी कसौटी के सामने नंगा किया?

जब-जब समाज के लिए आचरणों की संहिताएँ बनीं,
मैंने भी उनके ऊपर ही हस्ताक्षर किये, अपना नाम मढ़ दिया,
वो और लोग थे, जो सत्य के लिए सलीब पर चढ़े, ज़हर भी पी गये।
समाज ने उनको सजा दी, समय ने अमर कर दिया।

अगर मैं एक शब्द-शिल्पी था,
तो मैंने अपनी लेखनी के साथ, थोड़ी-सी भी ईमानदारी बरती क्या?
शायद मैंने एक छल समय के साथ किया,
एक समाज के साथ किया, एक शब्दों के साथ किया।