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सोचा था / महेश सन्तोषी
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सोचा था...!
अच्छा होता अगर मैंने तुम्हारा शरीर भर चाहा होता,
और उसके मिलने, न मिलने पर तुम्हें हमेशा के लिए भुला दिया होता।
पर, मैंने तम्हें एक-एक साँस से बाँध लिया, कभी मैंने
और उम्र भर तुम्हें अपनी साँसों के साथ-साथ जिया,
अगर देहों के उत्सव ही प्यार का इतिवृत्त होते,
और देहों के संगमों में ही सिमटकर रह जाता प्यार;
तो स्पर्श तो स्वयं ही समसंचरित होते हैं,
अपनत्व की अनुभूतियों को कहाँ से मिलता आकार?
तुम से अपनत्व में, मैं निरन्तर खोजता रहा हूँ
इस प्रश्न का उत्तर...
पर, समय साक्षी है,
आज तक मुझे कहीं से नहीं मिला कोई उत्तर!