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कोई उर्जा / महेश सन्तोषी

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मैंने अपना ही नहीं, तुम्हारा दर्द भी,
आधे-अधूरे अक्षरों की आर्द्रता में जिया,
अपनत्व की अनुभूतियों की असीमताओं में शब्दों को ऊँचे आकाश दिये
शब्दों में निरन्तर निर्झरित किया!

संवेदित होकर भी अव्यक्त रहती हैं कुछ वेदनाएँ
वैसे भी कुछ व्यथाएँ अभिव्यक्ति की मोहताज़ नहीं होतीं,
दर्द की घाटियों के भीतर गूँजती तो रही कोई आवाज़
पर, बाहर वादियों तक कोई आवाज़ नहीं होती।

कहीं से ऊर्जा मिलती तो होगी, जो व्यथाओं को जोड़ती है,
आपबीतियों को एक तार में, सीती-पिरोती होगी!
कहीं से मिलती तो होगी कोई ऊर्जा...!