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कतरा भर धूप (कविता) / अनुभूति गुप्ता
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मेरे हिस्से की
कतरा भर धूप
वो भी
मित्र छीन ले गया
आत्मीय सहयात्री
हितैषी मेरा था
जो पहले
धूर्त अकुलीन हो गया
समन्दर के किनारे पर
खड़ी मैं
विक्षोभित लहरों को
मायूसी से देखती हूँ
और सोच में
पड़ जाती हूँ मैं
कि:
सफलता के शिखर पर
पहुँची तो सही
पर
इतनी ऊँचाई से मकान में
रहने वालों के दिल भी
दरिद्र हो गये
रिश्तों का मर्म समझना
वाक़ई आसान काम नहीं
स्नेह-नेत्रों में विश्वास नहीं
सन्धि की कोई आस नहीं
मेरे ही अन्तःस्थित संवेदन
मुझपर ही
गरजते हैं
बरसते हैं
कड़कते हैं
कहते हैं कि,
अब यह...मित्र
मौलिक रूप से
तुम्हारे होकर भी
तुम्हारे नहीं।