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सावन रोॅ तांडव / कस्तूरी झा 'कोकिल'
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बैताली सावन रऽ लीला
समझ नैं आबै छै।
लगातार बरसी केॅ कनहौ,
कहर मचाबै छै।
कनहौ सूरज आग बबूला,
धरती फाडै़ छै।
गरजी-गरजी दिल दहलाबै,
सिंह दहाडै़ छै।
बिजली छिटकै ठनका ठनकै,
बूँदा-बूँद बरसा।
गरम आग पर घीये नाँकी,
जेनाँ देह पर फरसा।
खेतीवारी गेलै भाँड़ में,
आगू खड़ा अकाल।
अफसरसाही मौज मनाबै,
मंत्री मालामाल।
कहाँ इन्द्र छै, कहाँ वरूण छै?
खोज लौह सें नैं मिलथौं।
करऽ तपस्या गद्दी छीनऽ
खेत में फसल कमल खिलथौं।