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जिन बदरियों की छाँह थी / महेश सन्तोषी

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जिन बदरियों की छाँह थी
परछाईयाँ थीं
छिप गई उन बदरियों के संग
और गिनते रह गये हमे,
कब बनी थी आखिरी बदरी?
कब मना था आखिरी सावन?

यों मेघ थे आये, गये, बरसे न बरसे, क्या हुआ?
क्या हुआ जो रह गया तन अनछुआ? मन अनछुआ?
पर आँख में, जब एक बादल
बिना बरसे, बस गया,
स्थिर रही उसकी तपन, स्थिर रहा उसका धुंआ,
रंगों के प्रतिबिम्ब थे या अंगों के?
रंगों के बिम्ब,
धुल गये सब धुली बूँदों के
बदन के संग!
जिन बदरियों की छाँह थी...!

मौसमों का हाथ पकड़े चल रहे थे
उम्र के मौसम,
हवाओं में कम नहीं थी नमी,
न ही कम नम था हमारा मन,
बादलों में दिखे थे, लिखे थे हमने
पढ़े थे, उन सुनामों के नाम,
बादलों के बीच से होकर गयी थीं
वीथिकाएँ प्यार की गुमनाम!

घनों के दो पाट करतीं
बिजलियाँ गोरी, सुनहरीं
आज चमकीं, खूब चमकीं,
परख लें हम, पराये मेघ कितने हैं?
और कितना पास है वह मेघ
मन-भावन!
जिन बदरियों की छाँह थी...!