भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना ही शहर लगने लगा पराया / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:03, 4 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=आख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन हमारे रास्ते बदले
सीमांकित हो गई दूरियाँ,
फिर एक बड़े फासले पर ही रही
परिधियों में बँधी आधी जिन्दगियाँ,
अब हमारे प्यार का शहर भी,
हमें पग-पग पर लगता है पराया!

पता नहीं, इस शहर में तुम कब से नहीं आयीं?
आज मैं यहाँ आया तो, तुम्हारी बड़ी यादें आयीं,
बाकी नहीं बचे वो पुराने घर,
हमारे प्यार के मील के पत्थर,
देर तक हम वक्त से आँखें चुराते रहे,
पर गये वक्त से हमने
नम आँखें भी मिलाईं!
बस परछाईयाँ ही परछाईयों से मिलती रहीं,
न हम किसी से मिलने गये,
न कोई हमसे मिले आया!
अपना ही शहर, लगने लगा पराया!

ज़िन्दगी बीत ही जाती है
इस शहर के या उस शहर के बीच,
समय न फिर कभी दोहराता, न वापिस लौटाता
किसी का बीता हुआ अतीत!
पर प्यार कभी बीतता नहीं है,
रीतता नहीं है प्यार,
बस स्थित होकर रह जाता है,
प्रवाहित साँसों के बीच!
अपना ही शहर, लगने लगा पराया!

शायद अब हम यहाँ अब
साथ-साथ नहीं आ पाएँगे,
एकाकी ही लौट जाएँगे,
शहर को क्या?
किसे खोया?
किसे पाया?
अपना ही शहर,
लगने लगा पराया!
अपना ही शहर......!