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तुम्हारी हथेलियाँ / महेश सन्तोषी

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जहाँ बनाते थे हम उंगलियों से
पुल, नावें, नदियाँ
कल बहुत याद आती रहीं हमें
तुम्हारी हथेलियाँ!

याद आते रहे दिन भर, तुमसे भरे दिन,
तुम्हारी बाँहों में सिमटीं साँसे अनगिन,
कभी तृप्ति, कभी प्यास के दर्पण जैसे,
मन भरे के लम्बे मन-अनमने चुम्बन,
धड़कनों में बँधी रहीं कुछ सुनी-अनसुनी ध्वनियाँ,
भूल नहीं पाए हम, वे विश्वासों से भरे पल,
संकल्पों की घड़ियाँ!
कल बहुत याद आती रहीं हमें
तुम्हारी हथेलियाँ!

जब हम हथेलियों से खेले,
खींच रहा था समय रेखा,
हमने हाथ की रेखाओं में प्यार देखा,
भविष्य नहीं देखा,
साँझ तक नहीं ठहर सके, सुबह के बने इन्द्रधनुष,
अँधेरों से भरा एक क्षितिज, छुपा रहा अनदेखा,
बार-बार सुखाते रहे हम,
फिर आँख के भीगे कोने, भीगी गलियाँ,
बार-बार रुलाती रहीं हमें, तुम्हारी हथेलियाँ!
कल बहुत याद आती रहीं हमें
तुम्हारी हथेलियाँ!