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मैं नहीं थी / महेश सन्तोषी

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जिसे तुम अलग-अलग शब्दों में
जी रहे थे
वो मैं नहीं थी,
पर जिसे तुम
पल भर भी भुला नहीं पा रहे थे
वो मैं थी,
तुम्हारी कविता नहीं थी!

जब मैं तुम्हारी ज़िन्दगी के
आसपास नहीं दिखी,
तुमने मुझे वक़्त के दिए हुए
धुओं, उड़ते मेघों, सिहरती हवाओं में देखा;
अपने हिस्से के जिस प्रारब्ध को
मैं अनदेखा नहीं कर सकी,
तुमसे वह पूरा का पूरा प्रारब्ध
जैसे रह गया अनदेखा,
जिसे तुम साँसों में सहेजे रहे
वह जीवित मैं थी, मेरी छाया नहीं थी,
पर जिसे तुम बाँहों में वश भर समेटे रहे
वह निर्जीव छाया थी, मैं नहीं थी!

अन्तहीन रहीं, तुम्हारी प्रतीक्षाएँ,
बिछाने को तुमने, शब्द बिछाए,
पलकें बिछाईं,
पर हमारी आहटें तक रहीं आईं,
उन पराए रास्तों से होकर
फिर तुम्हारी यादें ही गुजरीं
हम नहीं गुजरे,
पर हमारे रास्तों के आगे
हमेशा
दो आँखें झिलमिलाईं,
एक उजले प्यार की
उजली परछाईं,
जिससे तुम
क्षत-विक्षत, आहत, मर्माहत हुए
वह समय था, मैं नहीं थी,

पर जो तुम्हारी रोशनियों से,
भरी होकर भी रिक्तताओं से
घिरी रही, वह मैं थी,
मेरी नियति थी!