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समय की बाँहों में / महेश सन्तोषी

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जब तुम अपनी बाँहों में, नहीं बाँध सके
तुमने मुझे बाँधकर रख लिया, समय की बाँहों में,
सच, तुमने मुझे भुला क्यों नहीं दिया
अब क्या रखा है
इन मर्यादाओं के निर्वाहों में?

शायद, यह प्यार का प्रारब्ध है
कि वह कहीं न कहीं बँधकर रहे,
फिर वह मन प्राणों में हो
माँसल बाँहों में हो या झूठी मार्यादाओं में,
यह मेरी नियति थी
कि मैं तुम्हारा अतीत ही बनी रही
भविष्य नही बन सकी,
और अब तुम्हारा तो सारा जीवन ही बीत गया,
मुझे पाने की चाहों, खोने की व्यथाओं में,
जब देह से देह के, सम्वाद नहीं हो सके,
तो तुम मुझे सम्बोधित करते रहे सभी सम्वादों में,
मैं तुम्हें, शब्द देकर भी, खुद निःशब्द रही,
कभी अभिव्यक्तियों की पूरी थाहों,
कभी पूरी अन अव्यक्त अथाहों में
... समय की बाँहों में!

हर प्यार के शिलालेख नहीं होते,
अनदिखे दर्द के आलेख जब लिखे गये,
पिघलते गये आँसुओं की स्याहियों में, लिपियांे में,
मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं खोजा?
पाया, खोया, दर्द की घाटियों में,
सिसकते बादलों में, अकेली वादियों में,
वो जो पहाड़ों से दिन थे, बीत ही गये
और अब दो पूरी की पूरी जिन्दगियां ही रीत गयीं
समय की दी रिक्तताओं में,
मुझे मन भर सिहरने दो,
क्षत-विक्षत होने, बिखरने दो,
बहुत सा विसर्जित तो होने दो,
तुम्हें छूकर आतीं, सम-आहत हवाओं में!
... समय की बाँहों में!