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परछाइयों के मेले / महेश सन्तोषी
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हम अकेले नहीं हैं अस्ताचल पर
साथ में परछाइयों के मेले हैं!
दोपहरियों के दिए धुएँ कब, कैसे
उम्र की शाम तक चले आए?
किसी धुएँ से, किसी परछाईं से पूछा जाए,
वक़्त की दूरियाँ भी
पर अधूरा नहीं था कोई दर्द,
कितने एक से लगे, जब हमने दर्द दोहराए,
इन धुँओं की उम्र भी है, कद भी है,
कई नामों से हैं ये, कई लकीरों में फैले हैं!
परछाइयों के मेल हैं!
आख़िरी अँधेरों की दस्तकों तक,
हमने रोशनियों के सपने ढो लिये, सच्चाइयाँ ढो लीं,
वक़्त के आईने में जब पुराने चेहरे चमके
कभी हम रो दिये, कभी परछाइयाँ रो दीं,
शायद ये आख़िरी धुआँ है, किसी पहले दर्द का,
हमने तो सभी दर्द, बड़े सिलसिले से झेले हैं!
परछाइयों के मेले हैं!