भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उम्र की दोपहरियाँ / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 4 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=आख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्र की दोपहरियों में लिया,
बँधी हथेलियों का संकलप,
ना हाथ की रेखा रही,
ना साँसें लेता जीवन बना!
हमारे हिस्से के सपनों में भी था
एक जीवित स्वर्ग
जब छिना, वापस लेते नहीं बना!

कहीं रेखांकित तो नहीं था,
कोई प्यास, शाश्वत बनी रहती,
और हमेशा अनछुआ ही रहता
कोई बादल अधबना!
पर हमने तन की तृप्तियाँ नहीं चुनीं,
अनमने निर्झर नहीं चुने,
अधबना पनघट नहीं चुना!

मन की निर्मलता, तन की पवित्रता,
पहले प्यार सा पावन कुछ नहीं होता,
कभी-कभी लगता है, अच्छा होता शायद,
उसके आगे जीवन नहीं होता!
आँखों में ऐसे स्थिर होकर रह गये हैं,
तुमसे जुड़ा सच, तुम्हारे प्यार की परछाइयाँ
हम अस्ताचल पर खड़े समय से पूछ रहे हैं,
क्या प्यार का कोई अस्ताचल नहीं होता?
पूरा प्यासा तो नहीं बना जीवन,
पर अस्ताचल तक चली आयी एक प्यास,
मैं उसे पूरा पहिचान तो लूँ, कोई नाम तू है?
जरूरी तो नहीं था, हर प्यार पूछा जाए,
और उम्र भर पीठ पर या साँसों में ढोया जाए,
जिन्दगी सत्य ही तृप्ति का एक लम्बा सिलसिला है,
कहीं पलकों की छाप, कही हथेलियों की धूप,
खोज लेते हैं धूप,
इसीलिये किसी के लिए दिये जलते हैं,
किसी की हथेलियों का दिल जलता है!