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मोम के घर थे / महेश सन्तोषी

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न जाने कहाँ से
कैसे-कैसे आई आँच?
छिपे-छिपे आये धुएँ, सुलगते गये;
एक पूरी उम्र भर के, मोम के घर थे;
हथेलियों पर एक-एककर
पिघलते गये!

पिघल गया हमें पास से घेरे
चेहरे का उभरा रंग,
क्या हमारी चाहतें थीं
सचमुच इतनी बहुरंगी,
इतनी भदरंग?
भरी माँसल बाँहों के पुल
थे मोम के नहीं, जिन्हें बनाते-बनाते
हम बार-बार छले गये!
एक पूरी उम्र भर के, मोम के घर थे...!

समर्पण की ऊपरी सतहों सें,
उड़ती रही सन्देहों की भाप,
क्या देह की देह की प्रति जितनी आसक्ति थी,
उतना ही था अविश्वास?
देह के बन्धन थे, बनते-टूटते गये!
ऐसे ही तन के उत्सवों से भरी
सभी साँझे ढल गयीं, दिन ढल गये!
एक पूरी उम्र भर के, मोम के घर थे...!

हमें मन ही मन कचोटती रही
एक उम्र-सी लम्बी झूठ;
जैसे कोई अपने ही
आचरणों के आवरणों में
बार-बार जाए डूब,
झूठे यश जोड़ते रहे, बटोरते रहे;
हम, पर अर्जित अपयश भी
छायाओं से पीछे-पीछे चलते गये!

एक पूरी उम्र भर के
मोम के घर थे
हथेलियों पर एक-एक कर
पिघलते गये!