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इतिहास के अँधेरे / महेश सन्तोषी

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बाजार में फिर बिकने लगी है
बौने कदों की, तरह-तरह की चिमनियाँ,
लोग फिर लालटेनों के टूटे-फूट काँच सुधरवा रहे हैं,
ऐसा कौन सा रोशनियांे का नया इतिहास रच दिया उनने
जो आज हमें मरे इतिहास के अँधेरे फिर याद आ रहे हैं?

पिछले रास्तों पर फिर वापस कैसे लौट रही है-
ये अंधे विकास की यात्राएँ?
अँधेरे पग-पग पर प्रकाशित कर रहे हैं-
व्यवस्थाओं की असीम असमर्थताएँ;
जो उजालों की भी तिजारत कर रहे हैं, और वक्त के अँधेरे की भी
आम सड़कों पर अब उजागर हो रहे हैं!
उनके छुपे मंसूबे, छुपी मंशाएँ,
जरूर गलत रही होगी गिनती,
उनकी उपलब्धियों के पत्थरों की,
जो विकास के प्रकाश स्तम्भ तक
पास से किसी को नज़र नहीं आ रहे हैं!
लोग फिर लालटेनों के टूटे-फूटे काँच सुधरवा रहे हैं!!

ये कौन लोग हैं, जो कभी बाज नहीं आते?
सूरज की रोशनी का मजाक उड़ाते!
हर रोज अँधेरों में ही खुलते हैं इनके खाते,
अँधेरों में ही बन्द होते हैं इनके खाते;
उन्हंे नहीं भात-सुहाते उजालों में
आम आदमी, दो रोटियाँ खाते!

खाने को खाई तो थी,
कल इनने खुलेआम ईमान की कसमें,
आज बेहिसाब बेईमानी के संकल्प,
सरेआम उठा रहे हैं
लोग फिर लालटेनों के
टूटू-फूटे काँच सुधरवा रहे हैं!!

बाजार में फिर बिकने लगी है
बौने कदों की, तरह-तरह की चिमनियाँ,
लोग फिर लालटेनों के टूटे-फूटे काँच सुधरवा रहे हैं,
ऐसा कौन सा रोशनियों का नया इतिहास रच दिया उनने
जो आज हमें मरे इतिहास के अँधेरे फिर याद आ रहे हैं?