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एक और मार्क्स एक और लेनिन / महेश सन्तोषी

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इतिहास की बर्फ में दब गया है
दुनिया के अरबों गरीबों का क्रेमलिन,
वक़्त फिर क्यों नहीं पैदा करता
एक और मार्क्स, एक और लेनिन?

दुनिया के सारे गरीबों का
अब कहीं कोई मसीहा ही नहीं,
गरीबी की तो सैकड़ों रेखाएँ हैं
रोटियों की एक भी रेखा नहीं!
आस-पास सेक तो रहे हैं लोग अपनी-अपनी रोटियाँ,
उन अनाम भूखों के नाम, जिनके दाँ नहीं;
पेट नहीं, आँत नहीं!
औरों के खून-पसीने से ही उठते हैं वक़्त के जोरों के महल,
फिर वापस क्यों नहीं लौटते खुले इन्क़लाब के दिन?
वक़्त फिर क्यों नहीं पैदा करता,
एक और मार्क्स, एक और लेनिन?

कहाँ से उठेगीं अब क्रांति की आँधियाँ?
कौन बदलेगा अब इतिहास का रुख?
कहीं तो पैदा हुए होंगे वे लोग,
जो आग से लिखते हैं इन्क़लाब का आमुख!

खून ज-जब शहीद होता है, गलियों, सड़कों चौराहों पर
सत्ताएँ पत्तों सी झड़ जाती हैं, पेट की आग के सम्मुख,
जरूरत पड़ती है तो इतिहास दोहराया भी जाता है,
फिर उभरेगा बर्फ की परतों में ढँका क्रेमलिन!