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इस शहर से / महेश सन्तोषी

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इस शहर से बँधकर रह गए
हमारा प्यार, हमारे प्यार की यादें,
फिर दोहराते नहीं बने समय के वे पहर,
कहीं रास्ते नहीं बने, सतही सरहदों के आगे!

दो अलग-अलग शहरों में गुजर ही गयीं
दो अलग-अलग जिन्दगियाँ,
फिर हमने एक साथ समय को नहीं जिया,
बस, समय का दिया हुआ साथ जिया!
दबे-दबे रहे अभावों के आहत स्वर,
अनुभूतियाँ तक अमुखरित रहीं मर्यादाओं के आगे!
...सतही सरहदों के आगे!

अपने अतीत को ओढ़कर तो हम नहीं चले,
पर अतीत को छोड़कर भी हम कहाँ चल सके?
कुछ कदम, इस शहर की तरफ फिर वापिस नहीं लौटे,
कुछ कदम,इस शहर से कभी आगे नहीं बढ़े,
दूरियाँ ही अन्त तक सम्मानित रहीं देहरियों के बीच,
नए आकाश नहीं दिखे, संयमों के क्षितिजों के आगे!
...सतही सरहदों के आगे!