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सम्वेदित सहे सावन / महेश सन्तोषी

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इस क़दर नज़दीकियाँ भी, बादलों से रूह की,
कल्पनाओं के रंगों की, रूप की,
ज़िन्दगी भर छाँह थी, कुछ श्यामवर्णी बदरियों की,
रास्तों में उजाले थे, गौरवर्णी बादलों की धूप थी!

कहाँ से जन्मे, कहाँ आये-गये
ये धँओं के काफिलों पर काफिले,
पहली और आख़िरी फुहारों के बीच
एक पूरी उम्र भर के समय के फासले,
बात होती थी, कई संवाद होते थे,
पुरानी प्यास के, व्यथित आभास से,
साथ बरसे मेघ जब-जब, व्यथाएँ बरसीं डगों से
और सम्वेदित सहे सावन, बिना बरसात के!

अलग भी थे, साथ भी थे,
दो अलग इतिहास बूँदों से बने थे,
बोले न बोले मेघ, बूँदे बोलती थीं,
और हम नीचे भीगे खड़े थे,
तृप्तियाँ बरसीं बराबर प्यास पर,
नम आँख, नम अधर पर,
अलविदा कहने हमें,
अब आख़िरी पावस खड़ी थी,
आख़िरी सावन खड़े थे!