भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँसों के छिपे क्षितिज / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:38, 4 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=आख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँसों के कुछ छिपे-छिपे क्षितिज
जो हम ज़िन्दगी की दोपहरियों में देख नहीं पाए,
अब वो सब के सब दबे पाँवों
उम्र की शाम तक चले आए,

कोई आया न आया साथ
तो आया हमारे साथ,
इस सफ़र का आख़िरी पत्थर
एक अन्तिम रेत की बरसात!
बस हाथ भर है, दूर अस्ताचल
हम जा रहे हैं अकेले हाथ फैलाए!
अब वो सब के सब दबे पाँवों
उम्र की शाम तक चले आए!

क्या करें, कितना करें सम्वाद?
रोज बढ़ती शून्यताओं से,
कहाँ से दें अधरों को स्वर
निःशब्द हैं स्वर साधनाओं के,
दिखने लगी है दूर से, हर धुएँ की सरहद
पड़ने लगे हैं अस्तित्व पर, अवसान के साए!
अब वो सब के सब दबे पाँवों
उम्र की शाम तक चले आए!