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सन्देहों के घेरे / महेश सन्तोषी

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तुम्हारी कविता को लेकर मैं, मन में,
कुछ अपवित्र प्रश्न क्यों पाले हुए हूँ?

क्या पूर्व में भी तुम्हारे किसी से दैहिक सम्बन्ध थे?
या मेरे अतिरिक्त अभी भी हैं?
प्रश्न किसी सामाजिक या व्यक्तिगत
भय से भरी निजी नैतिकता का नहीं है?

मेरे सन्देहों से घिरी, तुम्हारी देह की पवित्रता
और अपवित्रता का भी नहीं है,
प्रश्न तो सीधा तुम्हारी समूची देह पर
मेरे समूचे एकाधिकार का है,
जो सीधी-सीधी पूँजीवादिता है,
एक शरीर की दूसरे शरीर पर
जितनी निजी,
उतनी व्यक्तिगत,

पर-देह एक ऐसी निधि है, जो विश्व की
बड़ी-बड़ी पूँजी से भी मूल्य में बड़ी है।
सचमुच असली सवाल
तो देह की अस्मिता का है,
जो सन्देहों के घेरे में है,
वह समाज है, सामाजिकता है!