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विस्मृत और मृत मील के पत्थर / महेश सन्तोषी
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तुम मेरे प्यार के सफ़र की
मील का आखि़री पत्थर,
पर पहली पावस-सी तरल हो,
धूप सी सहज हो, सरल हो,
अस्ताचल पर जला अनायास एक ऐसा दिया हो,
जिसने बीता सारा जीवन-पथ रोशनी से भर दिया हो,
प्यार का प्रकाश वहाँ तक फैला होता है
जहाँ तक ज़िन्दगी एक बार फिर शुरू हुई हो,
अन्तहीन अँधेरों के पहले
मेरी ज़िन्दगी के आख़िरी क्षितिजों को,
तुमने दृश्य और अदृश्य रोशनियों को,
बाँध तो दिया है
वरना वक्त के अँधेरों में डूबे हुए
उम्र के विस्मृत और मृत
मील के पत्थरों मंे क्या रखा है!