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जैसे फूल से अलग होकर / दिनेश जुगरान
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जब कभी
पुराने सपने
आवाज़ बनकर
अन्दर की हड्डियों में चुभते हैं
तब सन्नाटा
चाहता है
मैं कोई उत्तर दूँ
अपने पूर्वजों को
जिन्हें उम्मीद थी
कि मैं लगा दूँगा इस धरती पर
नए बीज
मैं एक मैदान के किनारे
बटोर रहा था
सूरज की किरणें
जो डूब गई थीं
तालाब की गहराइयों में
बची हुई कुछ किरणें
बन्द हैं
मेरे शब्दों के बीच
जिन्हें मैंने सहेज कर रखा है
केवल अपने को ही सुनाने के लिए
ताकि अपनी परछाइयों को छू कर ही
मैं खु़श हो सकूँ
जैसे फूल से अलग होकर
पांखुरी
महसूस करे अपने को पूरा
गीले पत्थरों पर
चाँद की रोशनी
पहुँचा देती है
अपने करीब
लम्हे बढ़ते जा रहे हैं
अनन्त की ओर
और मैं गाती हुई चिड़िया की
आवाज़ में
अपनी शाम की प्रार्थनाओं के शब्द
मिला देता हूँ
दुख कोई प्रेरणा है
या शपथ