एक ख़ाली हाथ / दिनेश जुगरान
आओ
इस चिलचिलाती धूप में
लगा दें आग
अपने-अपने नुकील सींगों से
छेद कर दें एक-दूसरे की खोपड़ी में
आओ इस धूप को थोड़ा लाल कर दें
एक ख़ाली हाथ
आकाश की ओर
किए उँगली
उछालता ह पसीना
और देता है ठण्डक
उस गठरी को
जो पिछली रात
गर्म रोशनी में झुलसने से बच गई थी
उस पेड़ की छांव में जिसमें एक भी पत्ता नहीं था
बिना पत्तोंवाले
पेड़ों के जंगल की
छांव
सुबह और धूप का
उजाले से अब कोई संबंध नहीं रह गया है
पूरी रात
जून के महीने का
ठिठुरा देने वाला
सन्नाटा ओढ़े हुए मैं
तलाश रहा हूँ
इतिहास की आँखों को
जिसे सौंप दूँगा
मैं अपनी धूप में तपी हुई ठण्डी हथेली
और पकड़ा दूँगा हाथों में फावड़ा
रौंद कर
तसल्ली कर ले
कभी तो थकेगा इतिहास
दर्द और खु़शहाली के लम्हे निजी लम्हे
सिमटते चले जा रहे हैं
शेष इन इतिहास के पन्नों के साथ
मुड़ कर
गुम होते जा रहे हैं