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रामदीन-2 / दिनेश जुगरान

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उस चमकीले अंधेरे के
ख़ौफनाक उजालों को
चीरते हुए
सूनी आवाज़ें
सड़क के उस छोर से
आ रही हैं
जहाँ एक सफेद
सन्नाटा चीख रहा है

तुम्हारी हल्की नींद
भी नहीं टूटती
उन आवाज़ों से, रामदीन!
जो बरफ से
पिघलते
खू़न के झरनों से
तुम्हारे खुले किवाड़ पर
दस्तक दे रही हैं

रोशनी की कालिख से लिपटे
सफेद चेहरे
किस ओर दौड़े जा रहे हैं
बैसाखियों के सहारे

कैसी सपाट ऊँचाई पर
पहुँच गए हो रामदीन!
हर क़दम
दलदल की मज़बूत
ज़मीन के सहारे
पाताल के
उजले दरवाजे़ खोलता जा रहा है

मौत के सन्नाटे
और गीली लकड़ियों में लगी आग
दोनों
पी ली हैं घर की दीवारों ने

कौन कर रहा है
लेखा-जोखा
सफेद सन्नाटे
मज़बूत दलदल
गीली लकड़ियों
और बैसाखी की उस दौड़ का

रामदीन!
इतिहास ने
अपनी मर्दुमशुमारी में
तुम्हें कभी नहीं गिना
दधीचि की हड्डी से बने
तुम्हारे कवच को
इतिहास के हथौड़ों
और कुछ चमकदार आँखों ने
तोड़ने की बहुत कोशिश की है
तुम जानते हो न
रामदीन!