शहर में मृत्यु / दिनेश जुगरान
तुम क्यों आए हो दौड़ते हुए इस शहर में जो अक्सर
बन्द रहता है
शायद तुम्हें मालूम नहीं बरसों पहले तालाब के किनारे जब तुम
एक पुराना गीत गुनगुना रहे थे यहाँ आकर मैं मर चुका हूँ
वैसे यह शहर अच्छा है हवाओं में झूमता बार-बार ऊँची-ऊँची
दीवारों पर लगे शीशों पर चमकती है सूरज की रोशनी लेकिन
सड़कों पर निकलने के लिए एक सरकारी मुहर लगा काग़ज़ लेना पड़ता है
तुम खू़ब रख दो अपनी रूह उनके क़दमों पर तुम्हारी ही आवाज़
गूंजेगी उन वीरान सड़कों पर जहाँ थोड़ी देर पहले तलवार की
झनझनाहट से (एक ज़ोरदार विस्फोट से) कुछ मुर्दा जिस्म पड़े हैं
जिन्हें परिन्दे नोच खाने को तैयार हैं
यहाँ तुम बच न पाओगे अगर तुम नहीं मिले तो हो जाएगा
तुम्हारे साए का कत्ल और तुम्हें दफना कर एक गिनती में शामिल
कर लिया जाएगा
सुविधा अनुसार बदलते कानूनवाले इस शहर में तुम्हारा क्या काम
यहाँ धूप तो निकलती है लेकिन किसी चाबुक की तरह उधेड़
देती है जिस्म की चमड़ी को
तुमने शायद बम से उठते आग के गोले को नहीं देखा है जब
मौत छिपती फिरती है दरवाज़ों के पीछे
और नन्हें-नन्हें हाथ छिटक कर दूर गिरते हैं जिस्मों से अलग
इस शहर में जीवन और मृत्यु दोनों के भय से कांपती सड़कों
पर तुम्हारी प्रतीक्षाएँ कभी भी सच्चाइयाँ नहीं बन पाएँगी
अभी समय है तुम दौड़ते हुए गाँव वापस चले जाओ