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रूखसार / नवीन ठाकुर 'संधि'
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आयलै सौन बरसै बादर,
सजनी निकलली लैकेॅ छतरी चादर।
रूप लागै छै एैसनोॅ,
कोहभर घर सें निकलली जैसनोॅ।
काजर तेल सिन्दुर लगावै छै बरदोॅ केॅ,
चौॅर, गुड़, दूध बाँटै छै मरदोॅ केॅ।
चमचम चमकै छै सजनी रूखसार,
आयलै सौन बरसै बादर।
कमर कसै छै मोरी केॅ साड़ी,
धान रोपै छै मोरी केॅ फाड़ी।
झुमर, गीत-गान, गावै छै लोरी,
सब्भैं मिली करै ठिठोली मुस्कावै छै गोरी।
गरजै मेघ लागै छै डर,
आयलै सौन बरसै बादर।
कभी देखै, डरोॅ सें छिपलोॅ धूप केॅ,
भान दिखावेॅ बादरें लुक-छिप केॅ।
तितलोॅ साड़ी सें छिपावै छै कखनू देह केॅ
रूकी नै रैल्होॅ ताकै बदरा केॅ।
हँसै ‘‘संधि’’ देखी सिनूर रूखसार।
आयलै सौन बरसै बादर।