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ऋतुराज / नवीन ठाकुर 'संधि'
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कुहकै छै कोयल जानी बसंत ऋतु,
कुहकै छै कोयल जानी हेमंत ऋतु।
अमुआ के मंजर सें झुकै छै डाली,
कोयलोॅ बुझै छै आरो जूझै छै आली।
झूमी-झूमी उड़ी बैठी कोयलें बजावै छै ताली,
टपकै छै मधुआ देखै छै माली।
रसों सें भरलोॅ छै आमोॅ के लाली,
रसें-रसें बढ़लै आमोॅ के टिकोलवा।
तबेॅ नजर डालै लोगवा,
मन प्राण सिहरै नजर डालै लोगवा।
‘‘संधि’’ जनानी खाय कुची कुचवा,
झूठेॅ लोग बोलै छै किन्तु परन्तु।
कुहकै छै कोयल जानी बसंत ऋतु।