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सून्नो गोद / नवीन ठाकुर 'संधि'
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कुहकै छै कोयलिया दिनैं दुपहरिया
घट लैकेॅ पनघट के गोरी धरि लेलकी डगरिया।
कानै छी ठोकी-ठोकी कपार,
ये धरती पर दुःख हमरोॅ अपार?
कहाँ चुकलां सून्नो छै गोदी,
घोॅर बहार सब्भै जी जराय छै दोदी-दोदी।
मुँह देखाय रोॅ जगहोॅ नै पतझड़ पहड़िया
कुहकै छै कोयलिया दिनैं दुपहरिया।
सब्भे रीझै छै बसंत ऋतु पावी केॅ,
कत्तेॅ सहबोॅ हम्में दुःख दाबी-दाबी केॅ।
आश भरोसोॅटूटलोॅ जाय छै दिन रात जागी केॅ,
हे विधाता! शरणोॅ में एैलोॅ छीं सब त्यागी केॅ।
आबेॅ बितलोॅ चललोॅ‘‘संधि’’ हमरोॅ उमरिया
कुहकै छै कोयलिया दिनैं दुपहरिया।