गुरु विरजानन्द / लाखन सिंह भदौरिया
(गुरु-शिष्य भेंट)
आदि काल फिर से, लौटा था, लेकर अपनी थाती,
कठिन तपस्या से बच पायी थी प्रज्ञा की बाती,
देख रही थी बाट प्रतीक्षा, बहिर्नयन-पट मूँदे,
जाग रहे थे, कई जन्म से, अन्तर्नयन उनींदे।
मरणासन्न, अमृता-संस्कृति, विस्मृत लुटी पड़ी थी,
तम ने सूरज के घर आकर किरन-किरन जकड़ी थी,
अन्ध-तिमिर की महा निशा में, पन्थ न सूझ रहा था,
एक दीप का तेज, तिमिर से तिल-तिल जूझ रहा था।
मेरे ऋषियों का गुरुत्व था, भरे नयन में पानी,
सौंपे किसे अमृत-गंगा को अगर-तृषा अकुलानी,
विजानन्द गुरूवर की कुटिया, अपलक नयन बिछाये,
जोह रही थी बाट, ज्योति का चिर अधिकारी आये।
धन्य हुआ वह भोर, तपस्या फूली नहीं समायी,
एक दिवस प्यासे अधरों ने, जब आवाज लगायी,
जिसके लिये, विकलता गुरु की, रात-रात जागी थी,
आज उसी ने, गुरु चरणों में स्वयं शरण माँगी थी।
दस्तक सुन, कुटिया के भीतर से यह प्रश्न जगा था,
तुम हो कौन, प्रश्न का उत्तर प्राणों से उमगा था,
मैं हूँ कौन? जानने को ही आयी है, जिज्ञासा,
अमृत-सिन्धु के द्वार खड़ा है, कोई मरुथल प्यासा।
शान-सूर्य, उत्तर पाकर यह, गद्-गद् छलक उठे थे,
मुक्ति तृषा के प्राण, अमृत पी-पीकर पुलक रहे थे,
आदि-अन्त का मिलन देख कर जैसे चकित गगन हो,
वह था दृश्य अपूर्व, धेनु का जैसे वत्स मिलन हो।
भरे अमृत को मेघ, मरुस्थल से ज्यों आन मिले हों,
उदित अरुण की किरण स्पर्श से, शतदल प्राण खिले हों,
शायद इससे कहीं अधिक सुख, उतरा हो उस क्षण में,
भूमा की महिमा फीकी थी, उस गुरु शिष्य मिलन में।
चिरकृतार्थ हो गया, समर्पण, गुरु चरणों में आकर,
गुरुता थी कृत कृत्य, शरण में सौम्य शिष्यता पाकर,
आज तृप्ति ही स्वयं, तृषा पर हो बलिहार रही थी,
जन्म-जन्म की प्यास, या कि निज भार उतार रही थी।
किसने किसको पाया, किससे कौन मिला था आकर?
किसने देखा दृश्य, कौन, कैसे बतलाये गाकर?
क्या अपूर्ण को बाँहों भरकर पूर्ण हुआ था कोई?
या कि पूर्ण ने ही लय होकर, मम-विकलता खोई।
धन्य हुई गुरुता या उस दिन सहज शिष्यता पाकर,
युग-युग की आलोक धरोहर या मनुष्यता पाकर।