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उतरॅ आकाशोॅ सें / कस्तूरी झा 'कोकिल'
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परसाल तोंहेॅ छेल्हौ, दिलदार, लागै छेलै।
एहे दुर्गा मेला, बहार लागै छेलै।
आबरी अकेला उदास लागै मेला।
तोरा बिना एकदम उदास लागै खेला।
धूरी फीरी घरहै में बीतैं छै दिन।
रातकहै कानोॅ मेॅ आबे तारा गिन।
तोरा साथेॅ हमरोॅ बहार भागी गेलै।
तोरा नैं रहला सें कटार जागी गेलै।।
सब गेलोॅ छै मेला में, असकल्लोॅ बैठलॅ छी।
तोरे याद करी-करी कविता लिखी रहलॅ छी।
तोरा हमरा रहला सेॅ बाते अनमोल छेलै।
गपशप में हर दम्में बाजै मधुर ढोल छेलै।
गपशप में हर दम्में बाजै मधुर ढोल छेलै।
खोजी-खोजी थक्की गेलाँ, अब तक नैं मिलली छॅ।
छाती लगाय केॅ मुस्की भारी खिलली छॅ।
उतरॅ आकाशोॅ सेॅ धरती पर आबी जा।
हवा, पानी, आगि न छोड़ी हमरा गलाँ लागी जा।
22/10/15 विजयदशमी रात्रि 6.45