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लोकतंत्र की डोर / शिवशंकर मिश्र

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नीचे सब के, सब से ऊपर,
नेताजी के हाथ,
गुंडे, पढ़े-लिखे, व्यापारी,
अफसर सारे साथ;

अफसर सारे साथ,
सभी मिलकर लूटेंगे देश,
क्यों अब कोई कष्ट रहेगा,
क्यों तो कोई क्लेश?

क्यों तो कोई क्लेश,
कहाँ तो जनता की क्या बात?
दो सूखी रोटी मिल जाए,
बासी थोड़ा भात;

बासी थोड़ा भात,
चाहिए क्या उसको भी और?
जैसा जिंदा, वैसा मुर्दा,
कोई भी हो दौर;

कोई भी हो दौर,
बहुत छोटी होती है भीड़,
बंदूकों के आगे चिड़िया
नहीं सेवती नीड़;

नहीं सेवती नीड़,
पुलिस है, हाजत है, है जेल,
अड़ना इन्हें नहीं है हरगिज
जरा-जरों का खेल;

जरा-जरों का खेल,
बाल-बच्चों का दारुण मोह,
भय है मंत्र अचूक,
हुए खुद मूक सभी विद्रोह;
मूक सभी विद्रोह,
मजे में दिन बीतेंगे यार,
अपना सारा देश,
देश में अपनी है सरकार;
अपनी है सरकार,
राज अपना चलता सब ओर,
अपने हाथों में आयी है
लोकतंत्र की डोर;

लोकतंत्र की डोर
लगाती जाती फंदे गोल,
लोकतंत्र तू बोल इसे, या
लोपतंत्र तू बोल!

डेमोक्रेसी में भरता
जाता है गलरा झोल,
डेमसक्रेसी बोल इसे, या
डेमनक्रेसी बोल!