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पतझर सा लगा बसंत / बलबीर सिंह 'रंग'

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पतझर सा लगा बसंत, तुम्हारी याद न जब आई।

जिस सीमा में जग का जीवन बन्दी,
जिस सीमा में कवि का क्रन्दन बन्दी;
जिसके आगे का देश सुनहरा है,
जिस पर रहता भविष्य का पहरा है;

वह सीमा बनी अनन्त, तुम्हारी याद न जब आई।
पतझर सा लगा बसंत, तुम्हारी याद न जब आई।

जिस पथ पर मैंने अरमानों की हलचल को पाया,
जिस पथ पर मैंने अपनी भूली मन्जिल को पाया;
जिस पथ पर मुझको मिली जवानी हंसती इठलाती,
विरहातप के संग मधुर-मिलन के बादल को पाया;

वह मिला धूल में पंथ, तुम्हारी याद न जब आई।
पतझर सा लगा बसंत, तुम्हारी याद न जब आई।

मैं अवसादों में पले प्यार की पीर पुरानी हूँ,
जो अनजाने हो गई हाय! मैं वह नादानी हूँ;
वह नादानी बन गई आज जीवन की परिभाषा,
प्राणों की पीड़ा बनी, आज मृग-जल सी आशा;

आरम्भ बन गया अन्त, तुम्हारी याद न जब आई।
पतझर सा लगा बसंत, तुम्हारी याद न जब आई।