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युग के आहत उर की पीड़ा / बलबीर सिंह 'रंग'

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युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अन्तर झांका,
जग ने निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी निःच्छलता को आंका,
जग भ्रान्ति भरा, मैं क्रांति भरा
जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिये,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदुगान दिये,
व्यवहार कुशल जग में कवि के
वरदान किसे कब याद रहे,
शशि को दी रजत निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिये,
लघुता बसुधा में लीन हुई
नभ ने ले ली गुरुता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

किस रवि की स्वर्णिम किरणों ने
मम उर-सर सिज के पात छुये,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुये
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे मैं मौन रहा
जग समझा कायरता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।