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विषैले खूख / मनोज चौहान

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तथाकथित कुछ नेता
उभरने लगे हैं आज
जैसे उग आते हैं
बरसाती मौसम में
घातक विषैले खूख1
स्वतः ही।

टिकट की चाह में
कर रहे हैं अभिनय
दिन – प्रतिदिन
समाज सेवा, भाईचारे
और इंसानियत की आड़ में।

बटोरना चाहते हैं
लोकप्रियता
मात्र सस्ते हथकंडों से
गरीब बच्चों को पात्र बनाकर
भेंट कर कुछ कपडे
खींचे जाते हैं फोटो
और अगले दिन
बन जाते है सुर्खियाँ
समाचार पत्रों की।

महापुरषों की जयन्तियों पर
माल्यार्पण करते हुए
अथवा किसी समारोह के
मुख्य अतिथि बनाये जाने पर
समझते हैं
सौभाग्यशाली खुद को
ध्येय मात्र एक ही
ध्यानाकर्षण और समर्थन
उपस्थित जनसमूह का।
 
समाजसेवक का मुखौटा ओढ़े
छल रहे हैं
अपने ही लोगों को
दे रहे है दगा
सामाजिक जागरण और
सद्भावना रैलियों के नाम पर।
 
भूल चुके है फर्क
नैतिक और अनैतिक के मध्य
अमादा हैं छीनने को हक़
यथार्थ में ही शोषितों का।

गुमराह, भ्रमित और कुंठाग्रस्त
एक भाड़े की भीड़
करती है उनका अनुसरण
समर्थन प्राप्त है उन्हें
कुटिल बुधिजीवी वर्ग का भी
घोल रहे हैं जहर
समाज की नशों में।

बैकलॉग का लॉलीपॉप देकर
मोहपाश में बांधते
बेरोजगार युवाओं को
दिखा रहे हैं राह
स्वाभिमानहीन और पंगु
बन जाने की।

उम्मीद है कि जागेगा युवा
एक दिन
छोड़ कर संकीर्णताएं
टिकाएगा पावं मजबूती से
सत्य की उर्वरा भूमि पर
और रौंद डालेगा
ये विषैले ‘खूख’।

खूख= कुकुरमुत्ता या कवक, जो बरसात के दिनों में नर्म भूमि पर उगता है। हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला की स्थानीय बोली में इसे ‘खूख’ कहा जाता है।