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शायद कहीं नहीं / अमरजीत कौंके

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उस का
इंतज़ार है मुझे
वो जो शायद कहीं नहीं

पृथ्वी के किसी कोने में
आकाश की किसी नुक्कड़ में
किसी दिशा
किसी शुन्य में
कहीं भी नहीं जो
उसका
कर रहा हूँ इंतज़ार

मेरी भटकन को लेकिन
सिर्फ वही है पहचानती
उस के पास है
मेरी सारी उदासी का इलाज
वही है एक दुनिया में
जो मुझे अच्छी तरह पहचानती

मैं उस को ढूँढता
हर औरत में
मैं तलाशता उसको
हर नारी-मन के
किसी कोने में
हर औरत के तन की
किसी नुक्कड़ में
मुझे लगता
कि किसी ना किसी औरत में
जरूर रहती होगी वह

मैं जगह-जगह ढूँढता
मैं जगह-जगह भटकता
लेकिन उसका कुछ हिस्सा
कहीं मिलता
कुछ हिस्सा कहीं दिखता
लेकिन वह कहीं भी
संपूर्ण नहीं
 
वह कहीं भी
दिखती नहीं पूरी
अगर मिलती कहीं
तो हर जगह अधूरी

यह अधूरी रह गई प्यास
मेरे मन को और बेचैन करती
हर जगह पर एक हार
मेरे मन में और प्यास भरती

मैं अपने
व्याकुल मन को समझाता
झूठे भ्रम से बहलाता
कि इस दुनिया में
कहीं तो होगी वह

लेकिन जानता हूँ मैं
कि कहीं नहीं वह
जिस का कर रहा हूँ
युगों से इंतज़ार।