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भटकन / अमरजीत कौंके
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तुम्हें पकड़ने के लिए
मैं कभी इधर
कभी उधर
भटकता हूँ
तुम परछाई की तरह
कभी इधर
कभी उधर दिखती
लुप्त हो जाती
तुझे पकड़ने की
इच्छा में ही
शायद मेरी सारी भटकन
छुपी हुई है
काश
मुझे पकड़ने का नहीं
छोड़ने का ढंग आता
इस तरह ही शायद
मैं तुम्हारी याद को
छल पाता...।