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दिन तारीखें / अमरजीत कौंके
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वह पूछती-
तुम्हें मालूम है
पहली बार किस
दिन मिले थे हम
कौन सी तारीख
कौन सा महीना
कौन सा साल
मैं कहता - नहीं...
दूसरी बार कब मिले थे
याद है
मैं कहता - नहीं...
वह फिर पूछती
तीसरी बार...?
मैं कहता - याद नहीं...
मैं कहता -
मुझे दिन तारीखें
याद नहीं रहतीं
बस मुझे तो
मिलन के वो पल याद रहते
उन संयोगी पलों का
पौद्या मेरे मन की
पृथ्वी के किसी कोने में
रात रानी की
वेल की तरह महक उठता
अक्सर रातों को
जब मेरी नींद खुलती
तो वह महक
मेरी साँसों से निकल कर
मेरे आस पास
फैलने लगती...
इस महक में खोया
मैं फिर उन्हीं
पलों में लौट जाता
उन्ही पलों को
वापिस जीने लगता
मैं कहता -
दिन तारीखों की
याद तुम्ही रख लो
मेरे भीतर तो बस
मिलन के उन पलों का
एहसास ही
महकता रहने दो।