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सपने का भ्रम / अमरजीत कौंके

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मैं किसी
विशाल रेगिस्तान में
भटका हुआ मुसाफिर था
मेरे चारों तरपफ
रेतीले भँवर थे
मेरे प्यासे होंठों पर
तपती रेत के सिवा
कुछ नहीं था
हाल बेहाल मैं
पानी की एक बूँद के लिए
मारा-मारा फिरता था

अचानक
मेरे बुझे नयनों में
रौशनी चमकी
रेत में दूर कहीं
रौशनी की लकीर
मेरे आँखों में एक सपना रख गई
पानी की चमक
एक पल के लिए
मेरे नयनों को
रौशन-रौशन कर गई

मैं
थके टूटे कदमों में
जीवन की आशा भर कर
अपने फ़टे
पपड़ाए होठों में
युगों जितनी प्यास भर कर
अपने बुझे नयनों में
पानी का सपना रख कर
गिरता पड़ता
हाल बेहाल दौड़ा
दूर जहाँ रेत में
पानी का कल-कल बहता चश्मा
निरंतर बह रहा था
जो मेरी सूखी आँखों में
नया जीवन
बन कर जग रहा था

मैं हाल बेहाल दौड़ा
गिरता पड़ता

लेकिन हर बार
वह चश्मा
मेरे से और कोसों
दूर चला जाता
मारा मारा उसके पीछे
मैं कहाँ तक भला जाता

अचानक मेरे पास
पवन का एक झोंका सा आया

उस ने समझाया -
हे मूर्ख !
यह तू
जिसके पीछे भाग रहा है
चश्मा नहीं है
यह है सिर्फ माया
पानी नहीं है
यह सिर्फ है
पानी की छाया...

यह सपना
जो तेरी आँख को
नज़र आया
यह तेरे अपने मन की
परछाई है
तेरी प्यास है
तेरे मन की
अंगुली पकड़ कर
जो यहाँ तक
तुझे अपने साथ-साथ
ले आई है...

रेत में ध्ँसा
मैं फिर अपनी
औकात पहचानता हूँ
 
अपने होठों की
प्यास पहचानता हूँ

मैं रेगिस्तान में
भटका हुआ राही हूँ
सिर्फ
रेतीले भँवर
तल्ख धुप ही
मेरी होनी है

मैं अपनी प्यास की
औकात पहचानता हूँ...।